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ऐ सुनो श्वेता ! / अरुणाभ सौरभ

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सुनो श्वेता !
कुछ ही दिन पहले
आटा-चक्की पर -–
गेहूँ पिसवाने गए थे हम लोग
सगुनी (दूध वाली बुढ़िया) के पास
कुछ पैसे बचे हैं
जिन्हें लाना है वापिस
अभी-अभी धान की दुनाई-कटाई होनी है
और नर्गल्ला पे चोर-नुकइया, ढेंगा-पानी,
डेश-कोश, कनिया-पुतरा, अथरो-पथरो......
खेलना बाक़ी रह गया है -- हमारा
नानी से कहानी सुननी है
बिहूला-बिसहरा की, नैका-बनिजारा की
शेखचिल्ली और गोनू झा की
या वो वाली कहानी जिसमे पाताल-लोक के अन्दर
लग्गी लगाकर बैगन तोड़ते हो –- बौने
कहानी के उस पाताललोक मे भी जाना बाक़ी है
आधी रात मे
अपने सपनों को दबा कर
चेंहा कर उठ-उठ जाना
और पेड़ों की झुरमुटों के बीच
छिपे चाँद को निहारना चुपचाप
और चाँदनी रात मे अट्ठागोटी खेल कर
मखाना का खीर पकाना भी बाकी है
और भी बाक़ी है / बहुत कुछ बाक़ी है
श्वेता !
ऐ सुनो श्वेता !!
तुम कितनी बड़ी हो गई अचानक
इतनी जल्दी इतनी बड़ी कि......
..अब...
....ब्याहने जा रही हो .....