ऐ हवा / ऋता शेखर 'मधु'
खुशबुओं की पालकी से शुभ्रता को पा रही है।
पुष्प का उपहार पाकर तू बहुत इतरा रही है।
ऐ हवा! ये तो बता तू अब किधर को जा रही है॥
चाहते जिसको सभी वह रूप तेरा है बसंती,
झूमती हर इक कली का है बना अनुबंध तुझसे।
डालियाँ घूमीं उधर जाने लगी तू जिस दिशा में,
मंद शीतल जब हुई तू है बना सम्बंध तुझसे।
प्रेम से सुरभित बनी तू प्रेम ही दिखला रही है।
ऐ हवा ये तो बता तू अब किधर को जा रही है॥
गर्म दिनकर जब हुए तू क्यों अचानक बौखलाई,
ताप की आँधी चली तो जंग-सी छिड़ने लगी क्यों?
चाल पर से खो नियंत्रण नाचती बनके बवंडर,
हर दिमागी सोच से फिर भावना भिड़ने लगी क्यों?
रेत पर तू बावरी बन किस पिया को पा रही है।
ऐ हवा ये तो बता तू अब किधर को जा रही है॥
जो धुआँ लेकर चली है नफ़रतों से है भरी वह,
छोड़कर हर कालिमा तू बादलों को ला धरा पर।
तू न होगी तो जगत सुनसान मरघट ही बनेगा,
बुझ चुकी जो लौ दिलों में फूँक कर उनको हरा कर॥
शुभ हवन की अग्नियों से साधना महका रही है।
ऐ हवा ये तो बता तू अब किधर को जा रही है॥
पतझरों में ढेर लगती सरसराती पत्तियों की,
कर रही हैं शोर देखो दर्द से भीगी शिराएँ।
मित्र बनकर ऐ पवन बस थाम ले उनके बदन को,
बैठकर कुछ देर सुन ले, ठूँठ से उनकी व्यथाएँ॥
तू सहेली-सी बनी है वेदना सहला रही है।
ऐ हवा ये तो बता तू अब किधर को जा रही है॥