ऑफ़िस-तंत्र-3 / कुमार अनुपम
वह सोचता है
और सोचता है कि सोचने का ही तो
मिलता है मासिक मेहनताना
सोचता है
और बॉस को बताता है
कि बॉस,
मेरा तो ऐसा सोचना है फलाँ प्रोजेक्ट की बाबत
बॉस के होंठ फैलते हैं ज़रा-सा
वह सोचता है, बॉस खुश हुआ
फिर सहकर्मियों की एक मीटिंग बुलाई जाती है
वह अचानक चकित होता है जबकि बॉस
उसके सोचे हुए को
अपना सोचा हुआ ऐसे पेश करता है जैसे कोई राज़
लेकिन यह सोचकर
कि बॉस को जँचा उसका सोचना
कि बॉस की देह की सर्वोच्च कुर्सी पर
विराजमान है उसका ही सोचा हुआ इस वक्त
मन ही मन गर्व से कुप्पा होता है
'हलो, हाँ हाँ आप से ही मुखातिब हूँ जनाब
कहाँ हेरा गये
मन नहीं है यहाँ
तो कहीं और जाने के बारे में सोचें श्रीमान
इतनी इम्पोर्टंट मीटिंग है मैं हूँ यहाँ इतने ये लोग
झख मार रहे हैं और आप कहीं और
ऐसी बदतमीज़ी बर्दाश्त नहीं करूँगा— बॉस चीखता है
और उसके दिमाग में किसी सन्नाटे की तरह भर जाता है
कमरे से निकलते हुए सोचता है कि कुछ नहीं सोचेगा ऐसा
जो फिट न बैठे मालिक के दिमाग की नाप से
या यह
कि अब कुछ सोचेगा ही नहीं बस काम किये जाएगा
जैसे करते आ रहे हैं बाकी सहकर्मी
वर्षों से खुश खुश बिना कुछ सोचते हुए उन सबको
खुद पर ताना मारने की मोहलत नहीं देगा
ऐसा सोचता है सोचने पर शर्मिन्दा होता है
कहीं और जाने के बारे में भी सोचता है
और
कहीं और न जा पाने की वजह के बारे में भी
समझदार साहस से भरकर कई बार
मगर कहीं उसके भीतर से निकलकर
एक पिता एक पति एक पुत्र एक भाई
सोचने के ऐन बीचोबीच आकर डट जाते हैं
दरअसल, घर और संसार के दरम्यान
एक ऑफ़िस होता है विभाजन रेखा की तरह
जो चीरता रहता है दो फाँक आठों याम...
इसी अवकाश में आता है बॉस का फोन—
'आपको फील तो नहीं हुआ कुछ कहना पड़ता है
लेकिन आपकी विद्वता का कायल हूँ बेइन्तेहाँ
और सोचिए ज़रा
कि सिर्फ आपको ही है मेरे बँगले पर आने की अनुमति
आज क्या प्रोग्राम है आपका, आ जाइए, घर पर ही हूँ
वह सोचता है कि क्या क्या तो सोचता रहा फालतू
और बॉस के बँगले पर जाता है मुग्धभाव
जहाँ उसकी प्रतीक्षा में ही मिलता है बॉस कहता है—
'हाँ तो क्या सोचा आपने
बताइए बताइए...
वह पुलक में भर
जैसे ही बताने लगता है
बॉस ऑन कर देता है एक धार्मिक-स्त्रोत फुल साउंड
और कहता है—
'ज़रा और और तेज़ बताइए ना
सुनाई ही नहीं दे रहा आपका सोचा हुआ कुछ भी।