भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं / मोहम्मद अलवी
Kavita Kosh से
ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं
टेबल पर सर रख कर सो जाता हूँ मैं.
गली गली मैं अपने आप को ढूँडता हूँ
इक इक खिड़की में उस को पाता हूँ मैं.
अपने सब कपड़े उस को दे आता हूँ
उस का नंगा जिस्म उठा लाता हूँ मैं.
बस के नीचे कोई नहीं आता फिर भी
बस में बैठ के बे-हद घबराता हूँ मैं.
मरना है तो साथ साथ ही चलते हैं
ठहर ज़रा घर जा के अभी आता हूँ मैं.
गाड़ी आती है लेकिन आती ही नहीं
रेल की पटरी देख के थक जाता हूँ मैं.
'अल्वी' प्यारे सच सच कहना क्या अब भी
उसी को रोता देख के याद आता हूँ मैं.