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ओं नमो वभूत, माता वभूत, पिता बभूत (राखावली) / गढ़वाली

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

ओं नमो वभूत<ref>विभूति, राख</ref>, माता वभूत, पिता बभूत,
वभूत तीन लोक तारिणी।
ओं नमौ वभूत, माता वभूत, पिता वभूत,
सब दोष की निवारिणी।
ईश्वरल औणी<ref>ईश्वर ने बनाया</ref> गोजलि छाणी<ref>छानकर</ref>,
अनन्त सिद्धों ने मस्तक चढ़ावणी।
चढ़े वभूत नि पड़े हाऊ,
रच्छा करे आतम विश्वासी गुरू गोर्क<ref>गौरखनाथ</ref> राऊ।
जरे जरे<ref>हरी-भरी होकर</ref> धरेतरी<ref>धरती</ref> फले, धरेतरी मात गायत्री<ref>गाय</ref> चरे,
सुषे सुषे<ref>सूख-सूख</ref> अगनि मुख जले।
स्या वभूत नौ नाथ पुर्षकूं चढ़े,
स्या वभूत हैंसदा कमल कूं चढ़े।
चतुर्थी वभूत चार वेद कूं चढ़े,
पंचमें वभूत पंचदेव कूं चढ़े।
हंसन देखे तुमारू नाऊं,
आप गुरू दाता तारो, ज्ञान खड्ग ले कालै मारो।
औंदी डैकणो<ref>डाकिनी</ref> द्यालो पताल,
त्वै देऊं रे डाकणी बजुर का ताल।
दुख<ref>दुख नष्ट होना</ref> नावे सुष बैठे बस कंुवार किकरे माया,
इस पिंड की अमर काया।
अमर पथी बजुर<ref>वज्र</ref> की काया।
घर घर गोरक वैकर सिद्धि काया निरमल निधी।
सोल कला सा पिंड वाला घट पिंडक गोरक रखवाला।

शब्दार्थ
<references/>