भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओढ़ आए हम / सोम ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओढ़ आए हम
चाँद की किरणो - बुने
ठंडे रूपहले शाल

देह श्री कह ले
कि उष्णारागिनी हम
गुनगुनाहट आ गई
दहके गुलाबों तक
चितवनो की सीढ़ियाँ
उतरा चला आया अचानक
गूँजकर रतनार सा आकाश
लज्जा के नकाबों तक

छू गया लो, आँधियों का
वंशधन मन
फिर लपकती
बिजलियों के गाल
ये नये शाकुन्तलों के अंक, बोलो!
कौन -- कब , किस मंच पर खेले?
जुड़ सकेंगे किस नदी के तीर पर फिर
कामरूपो के नये मेले?

अब कहाँ, किन
चोरजेबों में रखे हम
गुनाहों -काढ़े हुए रूमाल?
ओढ़ आए हम
चाँद की किरनो --बुने
ठंडे रूपहले शाल