भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओबामा के रंग में यह कौन है... / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं पढ़ा-लिखा होने के गर्व से प्रदूषित हूँ
मैं महानगर के जीवन का आदी,
एक ऐसी वस्‍तु में तब्‍दील हो गया हूँ कि भूल-बैठा
अच्‍छाई के सबक
मेरा ईमान नहीं चीन्‍ह पाता उन गुणों को और व्‍यवहार को,
जो आदिवासियों की जीवन-पद्धति में शुमार मौलिक और प्राकृतिक अमरता है
और एक उम्‍दा जीवन के लिए, बेहतर सेहत के वास्‍ते विकल्‍पहीन
मैं कविता में बाज़ार लिखकर विरोध करता हूँ
मैं करता हूँ अमरीका का विरोध और मान बैठता हूँ
कि लाल झंडा अब भी शक्ति का अक्षय स्रोत है
वह था और होगा भी किंतु जहां उसे चाहिए होना, क्‍या वह है ...

मैं उसे देखना चाहता हूँ आदिवासी की लाल भाजी, कुलथी और चौलाई में
मैं उसे पेजा में देखना चाहता हूँ और सहजन के पेड पर
मैं एक आदिवासी स्‍त्री की टिकुली में उसके रंग को देखना चाहता हूँ
और उसके रक्‍तकणों में
लेकिन वह टंगा है
शहर के डोमिना पिज्‍जा की दुकान के अँधेरे बाहरी कोने में
वह संसद में होता तो कितना अच्‍छा था
बंगाल और केरल में वह कितना अनुपस्थित है और बेरंग अब
वह किसानों से दूर किन पहाड़ियों में बारूद जुटा रहा है

वह कितना टाटा में और कितना मर्डोक में
और आम आदमी में कितना
धर्म में कितना
कितना जाति व्‍यवस्‍था में
स्त्रियों में उसे होना चाहिए था और छात्रों में भी
क़िताबों में वह जो था हर जगह, अब कितना और किस रूप‍ में
विचारों में उसका साम्राज्‍य कितना पुख़्ता
उसे कुंदरू में होना चाहिए था और डोमा में
बाटी में और चोखा में
एंटीआक्‍सीडेंट की तरह उसे टमाटर में होना चाहिए
उसे रेशेदार खाद्य पदार्थ की तरह
पेट से अधिक सोच में होना चाहिए
अब उसे सूक्ष्‍म पोषक आहार की तरह दिमाग में बसना चाहए

हालाँकि यह एक फैंटेसी अब
और विकारों को ख़त्‍म करने का ख़्वाब कि मुश्किल बहोत
लेकिन उसे शामिल होना चाहिए कोमल बाँस की सब्ज़ी की तरह
कि वह हाशिए पर बोलता रहे और ज़रूरत की ऐसी भाषा में
कि कोई दूसरा सोच न सके उन शब्‍दों को
जिसमें लाल झंडे के अर्थ विन्‍यस्‍त हैं
रोज़मर्रा के जीवन में शामिल रोटी, दाल और पानी की तरह
उसकी व्‍याप्ति के बिना, उस गहराई की कल्‍पना कठिन
जो लाल विचार की आत्‍मा है
 
महानगर की अंधी दिशाओं में,
एक अंतिम और साझे विकल्‍प के लिए,
मैं अब भी बस सोचता हूँ
मेरी इस सोच में पार्टी की सोच कहाँ...
कहाँ बुद्धिजीवियों की सहभागिता और कामरेडों की यथार्थ शिरकत...
दिल से सोचने के परिणाम में दिमाग को भूल बैठे सब
और डूब गए उन महानगरों में जिनपर कब्ज़ा अमरीका का
मैं अब भी लाल भाजी और कुंदरू के समर्थन में ठहरा हुआ
कि वह संगठन के लिए जरूरी
और पेजा और बाटी और हाशिए का जीवन,
जहाँ से अब भी हो सकती है शुरूआत...

यह मैं बोल रहा हूँ जिस पर विश्‍वास करना कठिन कि मैं बोलता हूँ
तो अपनी छूटी और बिकी ज़मीन पर खडा होकर
और वह तमाम उन लोगों की
जो न्‍याय के लिए अपने तरीके से लड़ रहे हैं
और उनके पास नहीं कोई मेधा और महाश्‍वेता ...
उनके पास है उनका भरोसा, कर्म और लड़ाई
मैं वहीं पहुँचकर, एक लाल झंडे को उठाकर कहना चाहता हूँ कि
पार्टनर, मैं भटकाव के बावजूद तुम्‍हारे साथ हूँ
कि मैं महानगर में किंतु आत्‍मा के साथ वहाँ
जहाँ अब भी सुगंध है हाशिए के समाज की, संघर्ष की
मैं कुछ नहीं, संघर्ष का एक कण मात्र

विचार जहाँ अपने लाल होने की प्रक्रिया में हैं
और उनकी दिशा वहाँ है
जो महानगर का वह अँधेरा कोना नहीं
जहाँ लाल झंडा डोमिनो के पास जबरन टाँग दिया गया है

ओबामा के रंग में यह कौन है...
मैं उसके ख़िलाफ़ हूँ ...