भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओम कर दी ज़िन्दगी / सत्य मोहन वर्मा
Kavita Kosh से
कौन सी अवमानना थी,
होम कर दी ज़िन्दगी ।
गंध सा उड़ कर बिखरना था मुझे
स्वर्ण सा गल कर निखारना था मुझे
कौन सी हठ साधना थी
मोम कर दी ज़िन्दगी ।
किस दिशा से कौन सी आवाज़ थी
जिस वजह से बेझिझक परवाज़ थी
कौन सी सम्भावना थी
व्योम कर दी ज़िन्दगी ।
अर्चना तट आज तक छूटा नहीं
आज तक वह ध्यान फिर टूटा नहीं
कौन सी आराधना थी
ओम कर दी ज़िन्दगी ।