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ओळूं नै अवरेखतां (4) / चंद्रप्रकाश देवल
Kavita Kosh से
म्हारै सोच रै इण झूंपै री नेवां
बोली-बोली अेक ओळूं चापळगी है
म्हैं टगमग भाळतौ रैयग्यौ। जांणै आपरा इज दोय अणबोल्या संवादां बिचाळै ‘पॉज’ आयग्यौ। म्हारै तावड़ै रौ अेकाअेक चिलकौ थारी सीळी पुड़तां ऊंडौ उतरग्यौ। म्हारौ जीवतौ सोच छोटो-छोटो छूनिजग्यौ। अेक छिब ही जिकी जमानौ नीं व्हियां माळवै उछरगी। अेक अजब, अचींती हुयगी। ओळूं माडांणी तूयगी। सावचेती अरथै नीं आवै। फालतू प्रीत अऊत जावै।
तालर रै सुनसान पाणी में छपाक,
माछली दाकळ गुम्योड़ी छिब सळवळगी है।