भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओळूं (1) / सत्यप्रकाश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज आठूं पौ‘र
मन अणमणौ रह्मौ।
मांझल रात में कोयल री कूक सूं
भिचक नै आंख खुलगी।
मन में चौफेर
बिचारां रा घेर घुमेर
बतूळा ऊठण लाग्या।
इण सांयत कांन्हूड़ौ कठै होसी ?
कांई करतौ होसी ?

दुवारका रै रंगमै‘लां
रतनदीवां री झीणी जोत में
फूलां री सेजां माथै
रूकमणीजी री गोद में माथौ मेल्यां
कदास सुखभर पोढ़यौ होसी।

थारै केसां में
रांणीजी आपरी आंगळियां उळझाय
रेसम होठां सूं
‘नाथ ! प्रांणनाथ ! कैयनै
थनै मीठी वांणी में बतळाता होसी।

वांरौ दूजौ हाथ
थारी छाती माथै
कंवळ रा फूल ज्यूं फबतौ होसी,
वांरी आंगळियां रा रतन जड़ाव नै
थूं पंपोळतौ होसी,
सो‘लै सिणगार सजिया
वांरा चांद सा मुखड़ा री
ओप-किरणां पीता होसी।

कै भरया दरबार में
राजसिंघासन रै माथै
थें दोनूं
अळगै देसां सूं आई
नरतकियां रा मुजरा लेता होस्यौ।
वांरै ठुमकै ठुमकै
रींझ्योड़ा रूकमणीजी
मोत्यां री मूठियां भर भर
निछरावळ करता होसी।
नाच संपूरण हुयां
अपछरा जिसी किणी नरतकी नै
थूं गळा रौ नवलख हार
घणा मांन सूं भेट करतौ होसी।