भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओळूं (2) / सत्यप्रकाश जोशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कै कूं कूं केसर रा रतनकचोळा भर
रेसम रै पितांबर
माखण री सोवन मटकी लियां
किणी बावळी गूजरी रै
नैणां में प्रीत रौ
कसूंमल रंग भरतौ होसी,
तद रूकमणीजी
आधा मुळकावता, झिझकता,
थनै पूछता होसी -
‘आ कुण कांन्हजी ? आ गूजरी कुण ?’
कै मै‘ला रै डागळियै
ऊंचो मूंडौ कियां
थूं मंडळ ढळिया तारां में,
कदंब री सेजां सूता चंदा में,
किणी रौ उणियारौ हैरतौ होसी,
अर पग चांपता
रांणीजी फरमावता होसी -
‘नाथ ! रंगमै‘लां पधारौ !
प्रांण ! बादळमै‘लां पधारौ !’

कै थूं रात रा सरणाटा में,
म्हारै गळाई
माखण बिना रीती मटकी ज्यूं
रीतै प्रांणां रा रीता बोल सुणतौ
तीणां रूंध्योड़ी मुरली रा
रूंध्योड़ा सुर सुणतौ
फूलां छाई सेज माथै
अठी उठी ....... पसवाड़ा फेरतौ होसी।
लै‘रां में रळमळ करती
चांद री छिब रै उनमांन,
नैणां में छळछळाती
बालपणै री अणगिण साथणियां री
प्रीत निहारतौ होसी,
पण रूकमणीजी रा बीजळ परस सूं
लैरा रौ वौ झिळमिळातौ चांद,
नैणा री छळछळाती प्रीत,
अणछक अलोप व्है जाती होसी,
तौ थूं थोड़ौ मुळकाय
आंख्या मींच लेतौ होसी।

दुवारका अर गोकळ बिचाळै
जमीं आसमांन रौ फरक !
उठै जमना कठै ? कुंज कठै ?
माखण भरी मटकियां कठै ?
पिणघट फूटता बेवड़ा कठै ?
राम रमती गोपियां कठै ?
राधा कठै ? राध, कठै ?
राधा कठै ?