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ओसारा / यतीश कुमार

घर का ओसारा
पहले सड़क के चौराहे तक
टहल आता था

पूरे मोहल्ले की ठिठोली
उसकी जमा पूँजी थी

ओसारे से गर कोई आवाज़ आती
तो चार कंधे हर वक़्त तैयार मिलते
शाम हो या कि रात
वहाँ पूरा मेला समा जाता था

हर उम्र का पड़ाव था वह
कंचे की चहचहाहट
चिड़िया उड़ और ज़ीरो काटा में
चहचहाती किलकारियाँ

पोशंपा के गीत
या ज़मीन पर अंकित
स्तूप का गणित

पिट्ठु फोड़ हो
या विष-अमृत की होड़
या फिर ताश और शतरंज में लगाए कहकहे
सब के सब वहाँ अचिंतन विश्राम करते

पर आज वहाँ
हर वक्त दोपहर का साया है
वो चौराहे तक पसरा हुआ ओसारा
चढ़ते सूरज में सिमट आया है

ढलती शाम की पेशानी
वहाँ अब टहल नहीं पाती
और न ही उगते सूरज की ताबानी के लिए
कोई जगह शेष है

ओसारा अब अपना पैर सिकोड़े
सर पर चढ़े सूरज को ताक रहा है
और वो ख़ुद में समा गए
अपने ही साये से बेइंतहा परेशान है