ओस की निर्वाण-प्राप्ति / मुकुटधर पांडेय
आ पड़ा हाय! संसार कूप में, भाग्य-दोष से गिर कर ओस;
पर, हर्षित होकर किया सुशोभित, उसने स्फुट गुलाब का कोष॥
उस ओर व्योम पर तारा-दल ने किया उसका उपहास।
इस ओर घेर कर कांटों ने भी दिया व्यर्थ ही उसको त्रास॥
उस पर रजनी ने डाल कृष्ण-पट, उसके यश को मंद किया।
पर, इन कुटिलों के कुटिल कृत्य पर, जरा न उसने ध्यान दिया॥
जब सूर्यागम का समय देखकर, प्राची ने निज भरा-सुहाग।
तब उसने भी हँस कर, मिल उससे, प्रकट किया अपना अनुराग॥
कब लख सकता था पर सुख-कातर, शठ समीर उसका यह मोद।
कर दी खाली झट उसे गिराकर, उसने मृदुल गुलाब की गोद॥
हो स्थान-च्युत भी हुआ वहीं वह, चिन्तित मन में किसी प्रकार।
निज भग्न हृदय को ले पहनाया, उसने तृण को मुक्ताहार॥
जब कर्म-सूत्र से खिंचकर नभ में, उदित हुए भास्कर भगवान।
उस पर प्रसन्न हो किया उन्होंने, उसको निज गुण-रूप प्रदान॥
पर, किसी जन्तु के उद्धत पद ने उसे भूमि पर गिरा दिया।
तब भी उसने पसीज पृथ्वी के, निष्ठुर-उर को सिक्त किया॥
होकर विमुग्ध इस कृति पर रवि ने, किया और भी हर्ष-प्रकाश।
निज किरण-दूत के द्वारा उसको, बुला लिया फिर अपने पास॥
इस भाँति ओस ने सत्कर्मों से, प्राप्त किया जग से निर्वाण।
लेकर वीणा हाथों में सुमधुर, किया प्रकृति ने तद्गुण-गान॥
-सरस्वती, सितम्बर, 1917