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ओहि मँड़बा बैठल दादा से सभै दादा / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

विवाह के बाद बेटी दान की चीजों के विष्य में अपने पिता से पूछती है। पिता कहता है- ‘मेरे पास है ही क्या, जो मैं दान में दूँ।’ बेटी कहती है- ‘पिता, दान देने से आपके धन में कुछ कमी नहीं होगी, वरन उसमें वृद्धि ही होगी।’ वह अपने पति से भी दान की चीजों की सूची पहले ही माँग लेने को कहती है तथा यह भी कह देती है कि ये लोग ऐसे नहीं हैं, जो पीछे तुम्हें कुछ देंगे। पति उत्तर देता है- ‘ऐसी बात नहीं है, ये सभी सज्जन हैं और मुझे जो मिलने वाला होगा, पीछे मिलेगा।’ बेटी, जो अपने पिता के घर में पली और इतनी बड़ी हुई, वह आज विवाह हो जाने के बाद पिता के परिवार का विरोध करने लगती है।

ओहि मँड़बा बैठल दादा से सभै दादा, करु दादा दहेज बिचार हे।
बड़ो बड़ो मुनि जन बाबा मड़बा चढ़ि बैठल, करु दादा दहेज बिचार हे॥1॥
भँगा<ref>टूटा हुआ</ref> थरिया हे बाबा भँगा तमडु़आ आ<ref>ताँबे की गगरी</ref> हे, बूढ़ो बरद कानी गाय हे।
कौआ खैने<ref>खाने से</ref> हे बाबा अमरो<ref>अमृत; अमरता</ref> नी घटै<ref>नहीं घटता है। निबटै=समाप्त होता है; खत्म होता है</ref>, धिया के देनें नै हुए थोड़ हे॥2॥
अछैतेॅ<ref>रखते हुए</ref> धन हे बाबा दहेजो नहिं देलऽ, तोरो धन कुम्हियो<ref>कुंभी लगना; यह एक जलीय घास है; कुंभी लगने से तालाब का पानी गँदला हो जाता है और उसमें मवेशी फँसकर मर जाते हैं। यह विनष्ट होने से तात्पर्य है</ref> लागे हे।
घोड़बा के जीन धै<ref>पकड़कर</ref> खाड़ी भेली बेटी, सुनो हे गँवार केरो पूत हे॥3॥
दान दहेज लिखाए बरु लेहो, सभे ठकहर<ref>ठगने वाला; ठग</ref> लोक हे।
भला नहिं बोलल्ह ननही<ref>नन्हीं; प्यार का संबोधन</ref> से कनियाय सुहबी, तोर बोल चित नै सुहाबै हे॥4॥
दान दहेज रहबौ नै करतै, एहो सब सोजन लोग हे॥5॥

शब्दार्थ
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