ओह, ये कामवालियाँ / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
दाई, बाई या कहो
कामवालियाँ
वो देखो आ रही हैं
सुबह –सुबह
अपने हाथों को भांजकर
ज़ोर –ज़ोर से बतियाते
अपनी अलग सी पहचान लिए
अपनी कछुएवाली पीठ पर
कई आकाश ढ़ोते हुए
उन्हें देखते ही
मेमसाहबों के चेहरे खिल जाते हैं
इत्मीनान है
चलो आ तो गईं हैं
निपट जाएंगे
झाड़ू-पोंछा-बर्तन
और अलग से भी कुछ काम
मक्खियों की भिनभिनाहट तो होगी पर
रोज़ की तरह
आते ही कामवालियाँ
फटाक से
घुस जाती हैं
‘पवित्र’ रसोईघर में
बर्तनों पर छूट गए साबुन के दाग़ से
डाँट भी खाती हैं
कभी चुप रहती हैं
कभी उबल पड़ती हैं
चूल्हे पर चढ़ी चाय के साथ
बरामदे से शुरू कर
घर के आख़िरी कमरे तक
पोंछा लगाती जाती हैं
पर उन बड़े घरों के बाथरूम
नहीं होते उनके लिए बने
अघोषित पाबंदी-सी है
इसलिए दबाए रखती हैं अपना पेट
काम ख़त्म होने पर
तलाशती हैं सुनसान जगह
बाहर सड़क पर
या घरों के पिछवाड़े
सोचती हैं, “पता नहीं
कितनी गंदगी चढ़ जाती है
बदन पर अपने
अभी-अभी तो महकाया था
पूरे घर को हमने ही
जैस्मीन वाले लाइज़ोल से ”
कामवालियों के आदमी
प्रायः होते हैं दारूबाज
पी जाते हैं बोतलों में
घरवाली के पसीने की पगार
अक्सर दिखाती हैं वे
ऊपर से ख़ूब सुखी दिखती
अपने पिया की प्यारी मेमसाहबों से
अपने शरीर उघाड़कर
अपने ही ‘परमेश्वर’ से खाए गए
चोट और घावों के निशान
बेटी बीमार है
बेटा लाचार है
कहती हैं तो लगता है यही हमेशा
कर रही हैं फिर से बहाना
पर नहीं दिखाई पड़ता
उनकी आँखों के नीचे
उनके हिस्से का काला पहाड़
जिसके नीचे रोज़ दबती जाती हैं वे
चट्टानों के छोटे-बड़े टुकड़ों के संग
टूटकर इधर-उधर बिखरती जाती हैं
एक कामवाली आती थी दिल्ली में
बेगुसराय की रहनेवाली
सुबह साढ़े सात बजे
दरवाज़ा खोलते ही
उसके साथ
उसकी चौड़ी हँसी भी
दरवाज़े के अंदर दाखिल हो जाती थी
उसके फटे होठों से चलकर
मेरे उनींदे चेहरे पर
खरगोशी छलांग लगा कूद जाती थी
और फिर मेरे अभी-अभी खिले चेहरे से
शिशु चिड़िया की ताज़ी उड़ान भर
मेरे बच्चों के मुखमंडल पर
धड़ाम से बैठ चिपक जाती थी
दिनभर के लिए
हालांकि उसके फटे होंठ
सालों भर फटे दिखते थे
फुर्सत में सुनाते थे अक्सर
मेरे बहरे कानों को
शायद अपनी अंतहीन पीड़ा
कि बेटी भाग गई थी
घर से दो साल पहले
आज तक नहीं है
उसकी कुछ ख़बर!