ओ कवि! जीवन गान सुना रे / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
ओ कवि, जीवन-गान सुना रे!
मृत प्राणों पर मधुर अमृत की एक बूँद ढुलका रे!!
बहुत सुन चुका गान थपकियाँ
लगा सुलाने वाले;
सपनों के रंगीन जगत की
ओर बुलाने वाले।
लगा समझने स्वप्न सत्य मैं, सत्य हुआ सपना रे!!
खिंचता गया उसी दुनियाँ की
ओर सतत् बरबस मैं;
कर न सका क्षण-भर को भी
अपने को अपने वश में।
था सुषुप्ति का राज्य, जागरण का कब चिह्न वहाँ रे!!
युग-युग की काली रजनी का
छाया गहन अँधेरा;
जान सके कब प्राण कि क्या है
सुन्दर स्वर्ण सवेरा।
नक्षत्रों की नीरवता का भेद न मैं समझा रे!!
जग कहता अमरत्व प्राप्त कर
झूल रहे ये झूले;
मैं कहता निश्चेष्ट शान्ति है
मरण, विश्व मत भूले।
मर कर मिली अमरता तो जीवन क्यों व्यर्थ मिला रे!!
जीवन है अमूल्य, उसका जग
मोल नहीं कर पाया;
विश्व तराजू में रख उसका
तोल नहीं कर पाया!
कह देता धीमे से, ‘जीवन नश्वर है, सपना रे’!!
किन्तु भाव दुर्बलतासूचक
है ओ जग ये तेरे;
सहन कर सका तू जीवन के
कब संघर्ष थपेड़े!
उसी पराजय की परिभाषा, ‘जीवन है सपना रे’!!
जीवन के समरांगण में
होता वीरों का मेला;
रक्त भरी झोली से जाता
फाग यहाँ पर खेला।
ठहरा यहाँ वही जिसमें साहस-बल शक्ति-प्रभा रे!!
मौन समाधि लगाकर अब तक
किसको स्वर्ग मिला है;
भीख माँगने से सिंहासन
देवों का न हिला है।
स्थिरता-अकर्मण्यता केवल मरण, नहीं जीना रे!!
चहल-पहल, हलचल-परिवर्तन
क्षण-क्षण में पल-पल में;
होते रहें विश्व-सरिता की
धारा के कल-कल में।
मैं इनको ही जीवन के लक्षण कहता आया रे!!
तू इनका ही स्रोत बहा
अपने स्वर की धारा में,
जगा, बहा ले जा जग को जो
पड़ा सुप्त कारा में।
घर-घर जाग उठे जागृति की मधुर भैरवी गा रे!!