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ओ गंगा / विनय सिद्धार्थ

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ओ गंगा तट की भोर सुनहरी,
स्वर्ण वर्ण बरसाने वाली।
शीतल बाँहे फैला करके,
सबको पास बुलाने वाली।
तन्हा को भी पास बिठाकर,
तुम खुशियों से भर देती हो।

अरे! बताओ, ऐसा भी क्या जादू टोना कर देती हो।

सूर्य देव का आलिंगन कर,
जब तुम लाली बरसाती हो।
सही बतायें! यार कसम से
दिल पर मेरे छा जाती हो।
क्यों इतना तुम महका करती?
क्या केसर से नहा के आती?
या फिर कोई तरल सुगन्धित
तन पर तुम अपने छिड़काती।
आते ही तुम मन को मेरे,
मधुरिम गंधों से भर देती हो।
अरे! बताओ, ऐसा भी क्या जादू टोना कर देती हो।

अच्छा छोड़ो! यह बतलाओ,
लटें क्यों अपनी बिखराती हो।
सारे जग को मोह लिया है
और अभी तुम क्या चाहती हो।
तुम भी न, बहुत हो नटखट,
सारे जग को बहकाती हो!
अरे बताओ हमसे भी।

क्यों इतना तुम शरमाती हो!

चिंताओं को दूर भगाकर शांतिमयी एक घर देती हो।
अरे! बताओ, ऐसा भी क्या जादू टोना कर देती हो।
कुछ भी हो...लेकिन तुम इंसानों से तो अच्छी हो।
तन के गोरे मन के काले शैतानों से तो अच्छी हो।
कुछ यादों के स्वर्णिम तन पर
चन्दन लेप मला देती हो।
एक प्रभावहीन न होता,
दूजा मन्त्र चला देती हो।
कुछ अतीत के सुन्दर लम्हों से
तुम मन को भर देती हो।

अरे! बताओ, ऐसा भी क्या जादू टोना कर देती हो।
अरे! बताओ, ऐसा भी क्या जादू टोना कर देती हो।