ओ गगन को नापते / प्रभात पटेल पथिक
ओ! गगन को नापते फिरते विरह-घट!
ढूढ़ते हो मीत क्या तुम भी, निशा भर?
जा चुका होगा गगन के पार यदि तो
मीत का मिलना असंभव, मान लो तुम।
मैं स्वयं हूँ भुक्तभोगी इस प्रणय का,
कह रहा हूँ आप-अनुभव, मान लो तुम।
इस धरा से उस गगन तक ढूढ लोगे,
भाग्य के होगे बली यदि, ओ सुधाकर!
राह के उन बादलों से पूछ लेते,
वे अखिल ब्रह्माण्ड का पथ नापते है।
वे बहुत ज्ञानी, बहुत मन-पारखी हैं
कौन प्यासा है कहाँ, सब जानते हैं।
क्या उन्होंने कुछ नहीं तुमको बताया,
या कि आये ही नहीं इस रात्रि, अम्बर?
है निवेदन एक तुमसे ओ विरह-सम,
रात्रि भर इस भाँति ही रहना प्रकाशित।
तुम रहोगे तो अकेला मैं न हूँगा,
एक-सी है व्यथा अपनी, एक-सा चित!
क्या पता दिख जाए हममें से किसी को,
किसी का, खोया हुआ वह प्राण-सहचर।