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ओ गन्धमयी! / सुरेश विमल

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तुझे रुग्ण देख कर
उदास हो गये हैं
अतिथि मौसम
ओ गन्धमयी!

रंग और उल्लास के
बहुमूल्य रत्न
अपनी मंजूषा में सँजोकर
लाये हैं ये यायावर
तुम्हारे लिए...
लेकिन तुम हो
कि अपने आंगन में फैले
कचरे के घिनौने दलदल में
पड़ी हो निस्पंद...!

चारों ओर से उठते हुए
दमघोंटू धुएँ के बीच
मुस्कुराती भी हो तुम
तो भयावह लगती है
तुम्हारी मुखाकृति...

हैरान हैं मौसम
कि क्यों एकाएक
सुलगते हुए रेगिस्तान में
परिवर्तित होने लगी है
आकाश-सी विशाल
और समुद्र-सी गहरी
तुम्हारी आंखें...!

ग्लानि से भरे लौटेंगे
एक-एक कर मौसम
तुम्हारे आनन की
बुझी-बुझी-सी छवि
अपने साथ लिए
और करेंगे कामना
तुम्हारे स्वास्थ्य-लाभ के लिए...

किन्तु अजगर की तरह
तुम्हारी अथाह सम्पत्ति पर
कुंडली जमाये बैठा
विवेकहीन और पाषाण-हृदय
तुम्हारा असीमित कुनबा
क्या कभी
तुम्हारा यह
डूबता हुआ चेहरा देखकर
विचलित होगा?