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ओ ज़िन्दगी! / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
निहार रही हूँ राह, देखूँ! तू आती है कि नहीं,
ओ ज़िन्दगी! यहाँ बैठ, मुस्काती है कि नहीं।
यह मेरे पुरखों का पुराना पठाली वाला घर है,
ताला लगा, दूब उगी, अब होने को खंडहर है।
कोदे की रोटी-झंगोरे की खीर तेरे संग खानी है,
मरती हुई माँ को दी अपनी ज़ुबान निभानी है।
आ ना! संग में गुड़ की मीठी पहाड़ी चाय पिएँगे,
पीतल के गिलास से चुस्कियाँ लेकर साथ जिएँगे।
कोने पड़ा- दादाजी का हुक्का साथ गुड़गुड़ाएँगे,
आ ज़िन्दगी! साथ में पहाड़ी मांगुल गुनगुनाएँगे।
शब्दार्थ: पठाली- स्लेटनुमा पत्थर जो पहाड़ी घरों की छत पर लगती है, कोदे(कोदा)और झंगोरे (झंगोरा)- उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी अनाज, मांगुल- विवाह आदि समारोहों में गाए जाने वाले उत्तराखंड के पारम्परिक पहाड़ी लोकगीत