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ओ तू / अज्ञेय

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 ओ तू, जिसे आज मैं ने सह-पथिक लिया है मान,
दे मत कुछ, न माँग तू मुझ से कोई भी वाग्दान,
लेन-देन ही है क्या इस परमाहुति का सम्मान?
जहाँ दान है वहाँ कभी टिक सकते हैं अधिकार?

शब्दों ही में बँध जाएगा आत्माओं का प्यार?
माँग न अनुमति, आ तू! सारे खुले पड़े हैं द्वार!
काया-छाया, ज्योति-तिमिर में रहे परस्पर भाव-
मुझे परस्परता में भी कटु झलक रहा अलगाव-

हम-तुम पहुँचें जहाँ न हों सीमाएँ और दुराव!
ईश्वर बन कर मन्त्र शक्ति से छू दे मेरा भाल-
दानव हो कर चूर-चूर कर दे मेरा कंकाल-
मात्र पुरुष रह बाँध भुजों से मर्माहत कर डाल!*
मुझे सिखा दे सुनना केवल तेरा ही निर्देश-

तेरे अभयद कर की छाया में करना उन्मेष,
अपना रहना अपनेपन को दे कर तेरे वेश!

1935