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ओ तृण-तरु गामी / माखनलाल चतुर्वेदी

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सिर से पाँव, धूलि से लिपटा, सभ्यों में लाचार दिगम्बर,
बहते हुए पसीने से बनती गंगा के ओ गंगाधर;
ओ बीहड़ जंगल के वासी, अधनंगे ओ तृण-तरु गामी
एक-एक दाने को रोते, ओ सारी वसुधा के स्वामी!
दो आँखों से मरण देखते
लाल नेत्र तीजा बिन खोले
ओ साँपों के भूषणधारी
धूर्त जगत में ओ बंभोले!
गिरि-पति गिरि-जा को संग लेकर, बजा प्रलय डमरू प्रलयंकर,
तेरा प्रलय देखने आया, दिखा मधुर-ताण्डव ओ नटवर!

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०