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ओ दलित बेटियों / कर्मानंद आर्य

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ओ सांवली धरती
दो उभारों के बीच चलने वाली तुम्हारी नर्म सांसे
पछाह धान का चिउरा कूटती जवान लडकियों की साँसों से
थोड़ा तेज धड़क रही हैं

तुम्हारी चौहद्दी के भीतर
कुछ युवा लड़के कर रहें हैं तुम्हारी रखवाली
मासूम कल्पना वाले देश में
तुम्हारे लिए खरीद रहें हैं सिगार-पटार
जुटा रहें हैं दूसरे साधन
 
एक तुम हो अनुभूतियों के आकाश में
दही जमा रही हो
मद्धम हवा सी लहरा रही हो फुनगियों पर ओढ़नी
नथुनी पर नचा रही हो गोल-गोल चाहतें

तुम असुरक्षा का कवच ओढ़े
घूम रही हो नंगी सड़कों, खुले बाजारों, बंद गलियों भीतर
बहेलिये के जाल को नाखूनों से काट रही हो

वह जाल जो तुम्हें जिन्दा रखता तो है
जीने का आकाश नहीं देता

दूसरी परंपरा की खोज में
तुम वर्जनाएं तोड़ रही हो
तुम टूट रही हो वर्जनाओ सी

तुम दूधो नहाओ पूतो फलो की उतरन उतार रही हो
संस्कार से चिढ़-रूठ रही हो भीतर-भीतर

एक अभ्र दमक रहा है माथे पर
क्या-क्या कर रही हो आजकल