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ओ दिन घणों अन्धेरो है / लक्ष्मीनारायण रंगा
Kavita Kosh से
ओ दिन घणो अन्धेरो है
हर रोसणी पर पैरो है
मंथण कर इमरत लाया
काळा नागां रो घेरो है
ऊंची मेड़ी ऊग्यो सूरज
गळयां रो भाग अन्धेरो है
बसन्त में पेड़ नागा-भूखा
ई जमीं रो दुख गैरो है
जमीं-आकड़ां फसलां ऊगै
खेत भूखां रो डेरो है
मिनख गमादी सै पैछांण
मुखौटो ही अब चैरो है
हर आवाज बणगी चीखां
कान जमीन रो बहरो है
गांव-गांव बस्त्यां बळै
किण रौ ओ पगफेरो है।