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ओ पवित्र नदी (कविता-एक्) / केशव

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तुम 'उस जगह' पहुँचती हो
अजनबी रास्तों से
ठहरती हो
सोचती हो
और लौट आती हो
जीने के लिए

फिर वही
वही तिर्स्कृत क्षण

रास्तों पर
(जिनसे होकर तुम लौटती हो)
तुम्हारे लौटने की आहट
छटपटाती रहती है
एक अरसे तक
स्मृतियों के दंश
गड़ने लगते हैं
तुम्हारी पलकों पर
गहरे
और गहरे
और अनायास तुम
रात की तरह
खामोश हो जाती हो

दर्द
धीमे-धीमे खाँसता है
तुम्हारी आँखों की पुतलियों में
एक अजनबी ज़िन्दगी
धारण करने के लिए

पी जाती हो तुम
सोए हुए साँपों का ज़हर
तुम्हारी धमनियों में
बहने लगती है
एक पीली नदी
और तुम डूबकर
गहराई मापना चाहती हो

अचानक तुम्हें
स्वयंवर की याद आती है
जो रचा गया है तुम्हारे लिए
और तुम
सतह पर तैरने लगती हो
किनारों के लिए

तुम रहना चाहती हो
अंश-अंश में
पानी की तरह फैलकर
बोना चाहती हो
अपनी मौलिकता के जंगल
रोशनी लौटाते हुए दर्पणों में
जहाँ तुम्हारी परछाईं
लहुलुहान पड़ी है कब-से

तुम्हें एहसास नहीं है
अपनी दृष्टियों के घायल होने का
तभी तो होना चाहती हो
शिखरस्थ

तुम्हारी भूल है
जो नहीं गाये तुमने
मौसमों के बदलने के गीत
और नहीं काटी
अपने बोए हुए क्षणों की फ़सल

तुम्हें नहीं मालूम जिन रास्तों से होकर
पहुँचना चाहती हो तुम
नदी के मुहाने पर
उन पर जमे पड़े हैं
काई और शैवाल
और जिन पर लटक रहे हैं
आदिम युग से
हत्यारे हाथ

तुम खोलना चाहती हो
अनजाने ही
अपनी दिशाओं के द्वार
उस-पार
एक नये सूरज की संभावना
जन्म ले रही है
तुमने कहा है
मैं प्रतीक हूऊँगी
उस उगने वाले सूरज की
जो अपनी गर्मी से
अलग चेहरों वाले
मानव जन्मायेगा
अपने गर्भ से बहायेगा
एक अजस्र-धारा
जिसमें तैरता रहेगा
सब-कुछ

पर ज़िंदगी तो
सोया हुआ साँप है
आखिर कब तक
नींद नहीं खुलेगी उसकी?
काठ की घंटियाँ बजाकर
बचा सकोगी अपनी ज़िन्दगी को
लहुलुहान होने से
शायद नहीं!
इस बार फिर तुम्हें
यूँ ही लौटना होगा
यूँ ही लौटना होगा
साँध्यकालीन घंटियों का नाद
गा रहा है सन्नाटे के साथ
विदा! विदा! विदा!