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ओ पवित्र नदी (कविता-दो) / केशव

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आह! पवित्र नदी
तुझमें बहने के लिए
सदियों से जन्म ले रही हूँ मैं
एक ही गर्भ से
लगातार
अतृप्त आकांक्षाओं की
सहस्रों आँखें
गिरने लगी हैं मुझमें
टूट-टूटकर
उनकी आँच पर पक रहा है
मेरा व्यक्तित्व
बेहोश हो रहा है
स्वीकृतियों के गर्भ में

मूल्याँकन के लिए
आज कौन-सी दीवारें फाँदकर
समुद्र लाँघकर
रुकना चाहती हूँ
अस्तित्व के कौन से पड़ाव पर?
मुझमें विलीन हुई दिशाएँ
घायल आवज़ों में
आज कौन-से रहस्य खोलना चाहती हैं
मेरे कानों में
(घंटियों की ध्वनि में)
मेरी आत्मा की प्रतिध्वनियाँ
किन अजन्में भविष्यों में
होंगी मुखर?
किन बन्द दरवाज़ों के
खुलने की प्रतीक्षा में
बह रही हूँ आज भी
हवा के साथ
पँख कटे होने पर भी
छटपटा रही हूँ
आखिरी उड़ान के लिए
किन देव-प्रतिमाओं के सम्मुख
नृत्य-मुद्रा में
खड़ी हूँ मौन
कब से

आह! प्यार
कब्रों का सम्मोहन
छाने लगा है मुझ पर
इस जन्म में भी
मैं नहीं पहुँच पायी हूँ अभी
तेरी लहरों तक
कि मृत्यु देश का प्रवेश द्वार
खुलने लगा है
मेरी पदचाप सुनकर
वह मेरी आहट
खूब पहचानता है
जो पिघले हुए सीसे की तरह नहीं
पत्थरों पर लोटती हुई
नदी की तरह उतरती है
हर-बार उसके कानों में

मैं निहारती हूँ
खिड़की में लटके आदिम आकाश को
दिन-दिन भर

और सुनती हूँ
सहमे हुए कबूतरों की
गुटर गूँ......गुटर....गूँ
खिड़की के काँच पर नाचती
धूप की चिड़ियाँ
धीरे-धीरे पिघल जाती हैं
बर्फ़ की सिल्लियों की तरह

और अचानक
उग आती है मेरे भीतर
खिड़की की सलाखें

बाहर की दुनियाँ
पकी हुई फसलों का
हवा के संग
संगीतमय झुकना-उठना
साँझ की उदासी पीता
मंदिर की घंटियों का स्वर
रास्ते पर सिर पटकती
पगध्वनियाँ
मेरे लिए सो चुके हैं
एक अरसे से
मैंने खुलने से पहले ही
मूँद लिया है मुट्ठियों में
अपना अस्तित्व
मैं बोलती हूँ
लेकिन मेरी आवाज़
मुझे ही सुनाई नहीं देती
खोज़ रही हूँ
अपने शब्दों की खोई हुई शक्ति
कौन-से तालों में बन्द
किन अजायबघरों की
सूनी दीवारों पर
लटकी हुई है खूँटियों से
मैं लिख रही हूँ
अपनी दीवारों के उखडे पलस्तर पर
ज़िन्दगी के गीत
लेकिन उन्हें पढ़ने शायद
कोई नहीं आयेगा

मैं बो रही हूँ
दृष्टियों की फ़सल
कमरे की चहारदीवारियों में
पी रही हूँ
फर्श पर रेंगती परछाईयों का खून
मेरी आँखों से
झरने लगी है राख
और मेरी हड्डियाँ
भरने लगी हैं सुराखों से
अपनी परछाईं तक को
सहेज कर रख दिया है
एक अदृष्य कोने में
टूटने के डर से

मैं अब
बिना परछाईं चलती हूँ
चलती रहूँगी
इस सबको नियति मानकर
क्योंकि मैंने बाँट दिया है
अपने व्यक्तित्व का
अंश-अंश
चहारदीवारी की ईंटों में

मैं अब 'मैं' नहीं रह गयी हूँ
हो गयी हूँ अमानत
अपने अनस्तित्व की
मैं जहाँ हूँ, वहाँ नहीं हूँ
छूट गयी हूँ
किसी अजनबी द्वीप की
बंजर हथेलियों पर
मैं उगूँगी फिर कभी
धरती की फसलें कटने की बाद
एक नये सूरज की उत्पति पर ही
हो सकेगा मेरा पकना
उससे पहले छटपटाते रहूँगी
तुझमें बहने के लिए
ओ पवित्र नदी!

मैंने साहस किया है
पाँवों के नीचे लेटी
सूख़ी तपती हुई नदी पर चलने का
मेरे सुकुमार पाँव हुए हैं घायाल
लेकिन घायल पाँवों की पीड़ा को
पिया है मैंने शोरबे की तरह
पा लेना चाहा है 'वह सब'
अन्दर ही अन्दर

जिसकी खिड़कियाँ
खुलती हैं स्वर्ग में
ख़ुलती हैं स्वर्ग में
और कृतज्ञ नहीं होना चाहा है
उन आँखों का
जो आज भी भटक रही हैं
अंधी घाटियों में
मेरे लिए सीड़ियों की तलाश में
उन हाथों का
जो आज भी उठे हुए हैं
तथास्तु! तथास्तु!!
उन पाँवों का
जो मुझे चलते हैं

मैंने एक कीमती पत्थर पाया है
अपने में आकार नहीं देना
चाहती हूँ उसे
सजना चाहती हूँ
आलमारी में पड़े
अन्य पत्थरों के बीच

मैं काँपने लगा हूँ कभी-कभी
जैसे काँपती है भूचाल आने पर
ताक में रखी हुई आधी भरी प्याली
कि मैं सहेज रही हूँ जिसे
उसे पँख न निकल आयें कहीं
और मैं हो जाऊँ
प्रस्तर-प्रतिमा
अपने और अपने बीच रुकी
और एक नए जीवन में खुलने के लिए
करनी पड़े प्रतीक्षा
किसी अजनबी देशे के राजकुमार की
जो राक्षस का वध कर
लायेगा जादुई जल
मुझ पर छिड़कने के लिए

लेकिन मैं
कहाँ हो पाऊँगी
उसकी भी कृतज्ञ
क्योंकि विरासत में मुझे
दृष्टि नहीं
जंगल मिले हैं
एक दूसरे में उलझते हुए जंगल

मेरे दिमाग के बीचों-बीच
लटका हुआ है
एक नंगा आदमी
अपने में धारण करना चाहता है वह मुझे
जैसे सिद्धार्थ ने धारण किये थे
गैरिक वसन
वह मेरे सम्पूर्ण को
समेटना चाहता है
अपने स्पर्श में
मुझे अपने लिये न छोड़
रिता देना चाहता है मेरा
अंशं-अंश अस्तित्व
मुझमें अंकित हो जाये
समय का घाव
इसलिए वह
गुज़रता है मुझमें-से
बार-बार
उसके आने की सूचनार्थ
हिलता नहीं पत्ता तक
हवाएं दुबक जाती हैं
चिमनियों के अँधेरे में
आवाज़ें लौट जाती हैं
अपने गर्भ में

समुद्र कुछ देर के लिए हो जाते हैं
अपने में विलीन
आकाश ले लेता है स्थान
वह जिस खामोशी से आता है
उसी तरह टेरता हुआ मुझे
लौट जाता है
किन्हीं अज्ञात प्रदेशों में

मैं उसका चेहरा
पहचान नहीं पाती
और वह मुझे
छोड़ जाता है फिर
ख़ामोशी के गहन अँधकार में
अपनी प्रतीक्षा के लिए

वह मुझमें रहना चाहता है ऐसे
गूदे में गुठली जैसे
अंकित है
मेरी सभी जिज्ञासाओं का
इतिहास
उसकी अदृष्य आँखों में
वह पढ लेता है मुझे
सभी भाषाओं में
पहन लेता है
वस्त्र की तरह
और थूँक देता है
कड़वी दवा की तरह

मैं जो नहीं आती हूँ पकड़ में
फिसल-फिसल जाती हूँ
पारे की तरह

उसे संकेत से बाँध लेता है
मैं छूट जाती हूँ अक्सर
पर मेरी परछाईं नहीं
और बिना परछाईं के मैं
भटक रही हूँ
जंगलों में खुलते रास्तों पर
जहाँ सिर्फ़ मैं हूँ
परछाई के लिए छटपटाती हुई
या फिर मेरी हड्डियों के
चटखने का शोर
लगता है अनंतकाल तक यूँ ही
भटकती रहूँ
इन खोए हुए रास्तों पर
तुझमें बहने के लिए
ओ पवित्र नदी!


मैं शब्द नहीं हूँ
इसलिए कोई मुझे
'कह' नहीं सकेगा
मुक्त हूँ
परिभाषाओं के दायरे से
दूर

मेरा सृजन
'एडम' और 'ईव' से
कम महत्वपूर्ण नहीं
मैं सब जगह हूँ
पानियों के बहने से लेकर
साँप के रेंगने तक में
मुझसे अलग कुछ भी नहीं है
जन्मदायिनी हूँ
धरती पर आरूढ
हर सत्ता की
मैं गायी जाती हूँ
गाथाओं में
प्रस्तुत किया जाता है मुझे
निर्माल्य की थाली की तरह
रचयिता की प्रसन्नताओं के लिए
मैंने घारण की है
समुद्रों की गंभीरता
आकाशों की पवित्रता
और खामोशियों की गहनता
उपासना के बल पर

मेरी उपलब्धि
महानताओं की प्रतीक है
पवित्रताओं की घोषणा
और सच्चाईयों की परिभाषा

लेकिन मैं
कितनी लघु
कितनी अनस्तित्व हूँ
तुझमें बहने के लिए
औ पवित्र नदी !

इतिहास के खूँटों-बँधे
अपने विश्वासों को
देना चाहता हूँ नये अर्थ
उन्हीं-उन्हीं पटरियों पर
दौड़ती रेलगाड़ियों में
तय करना चाहती हूँ
यात्राएं

परिधियों में बँधे जीवनक्रम से
होना चाहती हूँ अलग
बदलने से पूर्व
कंकड़ियाँ फैंक अतीत के जल में
पिरो लेना चाहती हूँ लहरों को
भीतर एक क्रम में
अपने रहस्यों की पीठ पर
लिख देना चाहती हूँ
अजन्मे भविष्य की रूपरेखा
अपने में मूँदे हुए फासलों को
खोलना चाहती हूँ

बेतरतीब

अपने को साक्षी मान
सिद्ध करना चाहती हूँ
अपना सच
जिसे पाया है मैंने
मर्यादाओं के खड़े जल में कंकड़ फैंक

इतिहास
मेरे अर्थों के काँपते हुए जिस्म पर
पँछ गया है
जैसे तिड़के हुए चूल्हे को लीप दिया गया हो
अल्ली मिट्टी से
मेरी प्रतीति
पीढ़ियों में बाँटने के लिए

भटकने के बावजूद
तैयार नहीं हूँ
रास्तों का पता पूछने के लिए
क्योंकि हर रास्ता
कहीं न कहीं तो पहुँचता ही है
मैंने अपने को दिया है
जो भी आकार
वह मुझे
वहन करना पड़ा है निरंतर
कभी सलीब की तरह
कभी रथ के टूटे पहिए की तरह
इसलिए अब मैं
जीना चाहती हूँ
एक आकारहीन ज़िंन्दगी
रचना चाहती हूँ
शब्दहीन महाकाव्य
अपनी पीड़ा के अभिमान के लिये
अपनी आत्मा के द्वार पर
पहुँचने से पहले
खटखटा लेना चाहती हूँ
सृष्टि के सभी द्वार
जिन क्षणों में
जिसने बरा है मुझे
नायिका की तरह

छोड़ना चाहती हूँ
उन चेहरों पर
अपने नाखूनों के निशान
ताकि मेरी बर्बरता
सुखा डाले
'लेडी मेकवेथ' के आँसू

अपनी पलकों को
मढ़ दूँगी तितलियों के पंखों से
ताकि लोगों को
चिढ़ियाघर जाने की ज़रूरत न पड़े
अपनी स्मृतियों से
तीर की तरह गुज़रती हुई
वहन करूँगी वक्ष पर
इतिहास को
और रख दूँगी
अपनी आँखें
भागती हुई रेलगाड़ियों के पहिये तले
ताकि काट कर फैंक सकूँ
विरासत में मिली हुई
फसलें
मौसमों के बदलने से पहले
सुखद है
चेहरों के भीतर से आगज़नी करना
अपने भीतर ढही दीवारों पर चढ़कर
चिल्लाना!
मैं विद्रोही नहीं!
मैं विद्रोही नहीं!!
फेंका गया पासा हूँ
शतरंज के खेल में
जिस पर आँखें गड़ाये बैठी है
नियति
कि कब वह
हड्डियों समेत चबा जाये मुझे
नरभक्षी पेड़ों की तरह

मैं नहीं डरती
मौत के झुर्रियों भरे चेहरे से
उसकी अभिमान-ग्रस्त
सर्पीली दृष्टियाँ
नहीं डसतीं मुझे
सालता नहीं मुझे
उसका छिपकर आक्रमण करना
यद्यपि
बाली पर राम का छिपकर
तीर छोड़ना

आज भी छोड़ आता है मुझे

घृणा की अंधी घाटियों में
पर अपने चेहरे में उगने वाला
दशानन
उसे हरगिज़-हरगिज़
दुत्कार नहीं पायी हूँ मैं
अपने भीतर होते
विद्रोह-क्षरण को
संजो पाने की कोशिश में
छूट गयी हूँ कहीं
ऋषियों के जंगल में
जहाँ छूटना नहीं संवारता
मेरे अस्तित्व की कोई अतिशयता
मेरे व्यक्तित्व को नहीं देता अर्थ
मुनियों का पपस्यालीन होना
या इन्द्र द्वारा
मुझे भेजकर
मेनका की जगह
करना तपस्या भंग
विश्वामित्रों की

आत्मलीन होने से
बहुत पहले की स्थितियों में ही
बाँधकर फेंक दिया गया है मुझे
तूफान पीते हुए समुद्रों में
उनमें डूबते-उतराते
खामोश हो चुकी हैं
मेरी विदोही आवाज़ें
शून्य तैर रहा है मुझमें
खाली नावों की तरह
पैंतरा बदलने से पहले ही
मेरी चेतना
समुद्र तल के अंधेरे में
हो गयी है विलीन
वर्षा-बूँदों में उतरकर भी
वहन नहीं कर पाऊँगी
मरुस्थलों का दुःख
क्योंकि मेरी सभी संभावनाएं
हो चुकी हैं गर्भस्थ
मैं बंद हूँ जिन तालों में
उनकी कुँजियाँ
गायब कर दी हैं रहस्यमय ढंग से
मुझमें लटकते
सर्पीले हाथों ने
मुझमें आत्महत्या कर गयी हैं
कितनी ....तारीखें
कितने....इतिहास
कितने......सूरज

तुझमें बहने के लिए
फिर भी मैं
सचेत नहीं हुई अभी
ओ पवित्र नदी!

मैं प्रस्तुत हूँ
खोल दो मुझे
ज़िंदगी के खोये हुए अर्थों में
लिख दो
मेरे सभी अपराधों की सज़ा
मेरे नाम

तुम्हें करना ही होगा
मेरे ठहरे हुए क्षणों से
साक्षात्कार

मुझमें बहने के लिए
फ़ूटना ही होगा तुम्हें
धरती के गर्भ में छिपे झरने की तरह
अन्यथा मेरी दृष्टियाँ
प्रलय के बाद भी रहेंगी बेहोश
मुझे झेलना ही होगा
प्रश्नचिन्हों-सा

अपने चिंतन की
मरूभूमियों में
अपने भविष्य की हथेलियों पर
देखना होगा मेरा विकृत चेहरा
बोना होगा मुझे
मरुस्थली जिज्ञासाओं में भी
और काटना होगा
मौसमों के अनुकूल न होने पर भी
मेरी देह से झूठ
तलवार की धार-सा भी
सहना होगा मुझे
और कहते रहना होगा
अपने महाकाव्यों की पीड़ा में
दर्द से भी बड़े विश्वासों में
सिर्फ इसलिए
कि मेरी भटकती हुई आत्मा को
मिल सके शांति
अन्यथा मैं
घुटनों के बल रेंगती हुई
कहीं पहुँच नहीं सकूँगी
हो जाऊँगी पोखर
और एक दिन मुझमें
आत्महत्या करने भी
कोई नहीं आयेगा
बहकर अपने में
चलती रहूँगी अपने में
अपने में ही खत्म हो जाऊँगी
और एक दिन शुरू और अंत के अर्थ भी
डूब जायेंगे मुझमें
हो जाऊँगी दलदल
तब होगा मुझमें
धँसना
और धँसना....

कोई भी छोर
पकड़ाई के लिए छूट नहीं जायेगा
मैं न रहूँग़ी धरती
न आकाश
बीच हो जाऊँगी
शून्य
काला शून्य
अपने में जो निर्जीव तक नहीं
चिह्न नहीं
लघु से लघुतर
अनस्तित्व तक नहीं

मैं प्रस्तुत हूँ
आओ
पी लो
मुझे अपने व्यक्तित्व के
टूटे हुए प्यालों में
बाँट दो
अपने शब्दों की गहराइयों में
ताकि फैल जाऊँ
तुम्हारे स्पर्श की आत्मा में
काट डालो
,मेरी जघन्यताओं को
अपनी पैनी वेदनाओं से
ताकि मुझमें मेरा-सा कहने को
न रहे कुछ
'मैं' हो जाऊँ 'तुम'
तुममें
विलीन
तुम्हारे नाम से हो
मेरा नाम
तुमसे छनकर बहे
मेरा स्पर्श
मैं हो जाऊँ विलीन
तुम्हारी सत्ता में
जैसे बूँद पानी में
मेरी और तुम्हारी परछाईयाँ
न रहें दो

बाँध दो मेरी नाव को
अपने तट पर
क्योंकि तुम ही हो मेरे सहयात्री
मेरे 'घटने' को
तैरने दो ब्रह्मांड
अपनी हवाओं पर
अपने गवाक्षों से
झाँकने दो मुझे
ज़िन्दगी के विस्तार में
ताकि पिघला सकूँ
भीतर डूबे हुए पत्थर

आज मैं
स्वीकारती हूँ सब
अंदर के अँधेरों तक को
सिर्फ तुम्हारे सम्मुख
ओ सहयात्री
सिर्फ तुम ही
वाहक हो
मेरे मौन के
तुम्हारे सामने मैंने
कच्ची सिलाई की तरह
उधेड़ दिया है
अपना व्यक्तित्व
जानती हूँ
आत्म समर्पण
बहा देगा मिट्टी की तरह मुझे
मेरे नाम के आगे जोड़ देगा
'अनिश्चित'
मेरा सार
मात्र होगा इतना
कि मैं रही हूँ ज़िंदा
कुछ तिथियाँ भर
चलती रही हूँ
बिना पाँव
एक दीवार से दूसरी तक

पर मिट्टी की तरह
टूटना भी
स्वीकार है मुझे
तुझमें बहने के लिए
ओ पवित्र नदी!