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ओ पृथ्वी, ओ नन्ही फरिश्ता बच्ची / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
पृथ्वी मेरी कविता का पाठ करती है
जड़ें सुनती हैं दरारों से तुम्हें
शीशों पर जमी परछाईयां हिलती हैं अकेले में
कुर्सियां पेड़ की ख़ामोश मुद्रा में
भरती हैं हुंकार
लैम्प-पोस्ट की सफेद रोशनी में नाचते हैं कीड़े
संगीत, मृत्यु की खामोश विदाई तलक बजता है
नन्हें फूल उतारते हैं पोशाकें
आहिस्ता से भीतर हो रही बारिश
दे देता हूं नन्हें हाथ फैलाए
उस शरमाई बच्ची को
वह अरुणाभ जानती है
संगीत हाथों में नहीं बहा दिए जाने में है
वह रुककर रंग उडेंलती है
खाली केनवास पर
मधुमक्खियां रखती है अपने अंडे
विद्युत की रोशनियों से छिपाकर
सूखे कंड़ों में
वहां कोई स्पर्श नहीं
तुम छूती हो एक अनछुआपन
ओ नन्हीं फरिश्ता बच्ची