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ओ प्रिय! / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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वासना गई
इच्छाएँ गईं
कर्म गया
दोस्त गये
खुद से गया
खुदी से गया
खुदा से गया
जीवन जा रहा
धीरे-धीरे या तेज
दृष्टिकोण है अपना-अपना
और है समझ का फेर
कर रहा इंतजार बस
प्रिय, तुम्हारे लौट आने का
जन्म देकर तुम्हीं तो छोड़ गयी थीं
कर गयी थीं इस जीवन के हवाले
ये खालीपन
ये सनसनाती हवा
ये गूँजता सन्नाटा
ये चुकती रोशनी
बस इंतजार है
भय भरा या उबाऊ
ओ मृत्यु
तुम्हारे लौट आने का।