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ओ भवितव्य के अश्वो! / महेन्द्र भटनागर

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ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास
हम
आश्वस्त अंतर से सधे
मज़बूत हाथों से दबा
हर बार मोड़ेंगे !

वर्चस्वी,
धरा के पुत्र हम
दुर्धर्ष,
श्रम के बन्धु हम
तारुण्य के अविचल उपासक
हम तुम्हारी रास
ओ भवितव्य के अश्वो !
सुनो, हर बार मोड़ेंगे !

ओ नियति के स्थिर ग्रहो !
श्रम-भाव तेजोदृप्त
हम
अक्षय तुम्हारी ज्योति
ग्रस कर आज छोड़ेंगे !
तितिक्ष अडिग
हमें दुर्ग्रह नहीं अब
अंतरिक्ष अगम्य !
निश्चय
ओ नियति के पूर्व निर्धारित ग्रहो !
हम....
हम तुम्हारी ज्योति
ग्रस कर आज छोड़ेंगे !

ओ अदृष्ट की लिपियो !
कठिन प्रारब्ध हाहाकार के
अविजेय दुर्गो !
हम उमड़ श्रम-धार से
हर हीन होनी की
लिखावट को मिटाएंगे,
मदिर मधुमान श्रम संगीत से
हम
हर तबाही के अभेदे दुर्ग तोड़ेंगे !
ओ भवितव्य के अश्वो !
तुम्हारी रास मोड़ेंगे !