भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ मनमीत! / ज्योत्स्ना शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

31
चल दी साँझ
सिंदूरी आँचल में
सूरज बाँध।
32
प्यासे को सिंधु
क्या जल देगा थोड़ा?
खारा निगोड़ा।
33
ओ मनमीत!
तुम बिन हमारे
रुँधे हैं गीत।
34
एक छुअन
यादों की खराशें हैं
व्याकुल मन।
35
नन्ही बच्ची–सी
आशा मन में झाँके
सीधी-सच्ची-सी.
36
रजत थाल
सुरमई तिपाई
ख़ाली क्यों धरा?
37
जी तो ये करे
जी लें ऐसे मिलके
कि, जी ना भरे।
38
ओ मनमीत!
हो तुम दूर, मेरे
रुँधे हैं गीत।
39
मन-अम्बर
चमका ध्रुव तारा
स्नेह तुम्हारा!
40
सुहानी भोर
दुआओं के मोती हैं
नेह की डोर!