भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ मेरे गीत / सिर्गेय येसेनिन / वरयाम सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ मेरे गीत ! किसलिए तुम्‍हारा यह चीख़ना-चिल्‍लाना ?
क्‍या तुम्‍हारे पास देने को कुछ बचा नहीं ?
ख़ामोशी के नीले धागों को
मैं सीख रहा हूँ बुनना अपने घुँघराले बालों में ।

चाहता हूँ ख़ामोश और सख़्त रहना ।
सीख रहा हूँ चुप रहना तारों से ।
अच्‍छा रहे सड़क पर विलो के पेड़ की तरह
पहरा देना नींद में सोए रूस का ।

अच्‍छा लगता है अकेले टहलना घास पर
पतझर की इस चाँदनी रात में
और रास्‍ते में पड़ी गेहूँ की बालियाँ
इकट्ठा करना अपनी खाली थैली में ।

पर इन खेतों का नीलापन भी कोई इलाज नहीं ।
ओ मेरे गीत! झकझोरने लग जाऊँ क्‍या ?
सुनहले झाडू से साँझ
बुहार रही है मेरा रास्‍ता ।

अच्‍छी लगती है जंगल के ऊपर
हवा में डूबती यह आवाज़ :
'तुम जो ज़िन्दा हो जियो उत्‍साह-उल्‍लास के बिना
जैसे पतझड़ के मौसम में लाइम पेड़ का सोना ।'