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ओ मेरे प्राणेश-नहीं है कुछ भी / राकेश खंडेलवाल

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एक तुम्हारा अनुग्रह पाकर भक्ति भावना जागी मन में
वरना भटक रहे जीवन को कोई दिशा नहीं मिल पाती

इस मन के सूने मरुथल में तुम बरसे बन श्याम घटायें
एक तुम्हारी कृपादृष्टि से सरसीं मन की अभिलाषायें
इस याचक को बिन मांगे ही तुमने सब कुछ सौंपा स्वामी
फिर जीवंत हुईं हैं जग में कृष्ण-सुदामा की गाथायें

एक तुम्हारी वंशी के इंगित से सरगम जागी जग में
वरना बुलबुल हो या कोयल कोई गीत नहीं गा पाती

करुणा सूर्य तुम्हारा जब से चमका मेरी अँगनाई में
हर झंझा का झौंका, आते ढल जाता है पुरबाई में
नागफ़नी के काँटे हो जाते गुलाब की पंखुरियों से
गीत सुनाती है बहार, हर उगते दिन की अँगड़ाई में

एक तुम्हारा दृष्टि परस ही जीवन को जीवन देता है
केवल माली की कोशिश से कोई कली नहीं खिल पाती

तेरी रजत आभ में घुल कर सब स्वर्णिम होता जाता है
मन पागल मयूर सा नर्तित, पल भी बैठ नहीं पाता है
तू कवि तू स्वर, भाषा, अक्षर, चिति में चिति भी तू ही केवल
तेरे बिन इस अचराचर में अर्थ नहीं कोई पाता है

तेरे वरद हस्त की छाया, सदा शीश पर रहे हमारे
और चेतना इसके आगे कोई प्रार्थना न कर पाती