भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ मेरे सपने कहाँ गये / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
ओ मेरे सपने कहाँ गये,
ओ मेरे अपने कहाँ गये,
कब से ढूँढ रहा हूँ तुमको
अपनी झलक दिखाओ।
सागर से नदिया मिल जाये
हर तट तब मुस्काये
बागों में जब चले बसंती
बंद कली खिल जाये,
मैं अगस्त सा प्यासा कब से
मेरी प्यास बुझाओ।
लाख बुलाया रात न आई
नींद हमारी पलकों में
शायद उसको बाँध रखा है
तुमने घनेरे अलकों में,
बैठ रहा है हृदय हमारा
यह अलगाव मिटाओ।
आशा और निराशा दोनों
बीच मैं आज खड़ा हूँ
धरती पर मैं दिव्य दृष्टि
आँखों में लिये पड़ा हूँ
बढ़ती श्वांसा, बढ़ती धड़कन
कोई उसे बुलाओ।