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ओ रेतीले देश के अजनबी / लीना मल्होत्रा

ओ रेतीले देश के अजनबी
मै देखती हूँ उस रेगिस्तान को अपने सपनो में
जिसकी रेत बिखरी रहती है मेरे बिस्तर पर
जिस्म को रगड़ती है बेतहाशा
घाव रिसते हैं पर दिखते नहीं…
भीगती हूँ
जब भी बारिश में
मेरे पाँव उस धूप में निकल जाते हैं जो रेगिस्तान पर लहूलुहान पड़ी है
उसकी आँच मेरे नंगे पाँवो से घुस जाती है
मेरी आत्मा को तपाने के लिए
एक नाम में पक कर
महकने लगती हूँ मैं
मेरी उदासियाँ झड़ने लगती हैं
और बादल थक कर हार मान जाते हैं
इस तरह तुम्हारा रेगिस्तान मेरे शहर में चला आता है
तुम नहीं आते