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ओ विप्लव के थके साथियो / बलबीर सिंह 'रंग'

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ओ विप्लव के थके साथियो, विजय मिली विश्राम न समझो।

उदय प्रभात हुआ फिर भी तो
छाई चारो ओर उदासी,
ऊपर मेघ भरे बैठे हैं
किन्तु धरा प्यासी की प्यासी।

आहत अन्तर के, पल भर की राहत को आराम न समझो।
ओ विप्लव के थके साथियो, विजय मिली विश्राम न समझो।

पद-लोलुपता और त्याग का
एकाकार नहीं होने का,
दो नावों पर पग रखने से
सागर पार नहीं होने का।

जब तक सुख के स्वप्न अधूरे तब तक पूरा काम न समझो।
ओ विप्लव के थके साथियो, विजय मिली विश्राम न समझो।

तुमने वज्र प्रहार किया था
पराधीनता की छाती पर,
देखो आँच न आने पाए
जन-जन की सौंपी थाती पर।

युगारम्भ के प्रथम चरण की गतिविधि को परिणाम न समझो।
ओ विप्लव के थके साथियो, विजय मिली विश्राम न समझो।