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ओ सखि सुन - 3 / विमलेश शर्मा

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बैंजनी फूल कचनार के
सादा थे!
प्रिय थे तुम्हें
इसीलिए चुन लिए थे!

कोमल इतने
जितना तुम्हारा ख़याल
कि पलक की झपक हो
और ओझल होने का भय तिर जाए!

उन्हें चुनना एक योग था
स्मृति में भाव का
जीवन में प्राण का
भाद्रपद में कजरारे मेघ का!

यों आषाढ़ में
बीते फागुन की यात्रा
एक याद भर है!
दरअसल
टूटे हुए की यह सहेजन
संस्कृति का भाग है!

सृष्टिप्रिया पीड़ा का राग है!

सखि! स्मृतियाँ पवित्र होती हैं
विषादजन्य हों तो भी
फूल-सी मृदु होती हैं
महुए की पछुआ में
खोयी लाज-सी होती हैं!
जानती हो
अतिशयता के तीर पर
दोनों ही सम नज़र आती हैं

जैसे कि एक हथेली पर फूल
और दूसरी पर
बस
फूल की आग!