भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ सोने के हिरन / प्रमोद तिवारी
Kavita Kosh से
ओ, सोने के हिरन
मुझे मत
और अधिक दौड़ाओ
छोड़ दिया
सब राज-पाट
अब भटक रहा
जंगल में
मन सीता सा
ज़िद कर बैठा
प्राण फंसे मुश्किल में
मर्यादाएं लांघ न जाऊं
कुछ तो लाज निभाओ
तुम ठहरो तो
मैंपांओं से
कांटा तनिक निकालूँ
मैं वो राजा नहीं
कि तुझ पर
अपना धनुष चढ़ा लूँ
तेरी चितवन का
मारा हूँ
ज्यादा नहीं सताओ
एक, बहुत प्यासा हूँ
दूजा रातों का जागा हूँ
तुम क्या जानो कैसे
तेरे पीछे मैं भागा हूँ
रात अभी गहरा जायेगी
ज्यादा दूर न जाओ
भाग रहा हूँ मैं
तो आखिर
तुम भी भाग रहे हो
जाग रहा हूँ मैं
तो आखिर
तुम भी जाग रहे हो
छोड़ो दौड़-भाग
अब मेरी
बाहों में आ जाओ