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ओ हँसे / दीप्ति पाण्डेय

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तुमने समय के रथ को खूब हाँका
भगाया जितना सामर्थ्य था
हर दिशा में मुड़ना चाहा, लक्ष्य दिग्भ्रमित था
अवचेतन की पीठ पर चेतना के चाबुक पड़े थे जब
तिलमिलाया था न वजूद? हुई थी न मूर्छा?

समय के पृष्ठ पर लिखते समय चूक हुई थी जो
उसे मिटाकर सुधारने का मौका नहीं मिलता
घट गया जितना, रीत गया उतना
पुनः भरने का प्रयास फिर भी रहा अनवरत

पँख टूट रहे हैं मेरे पाखी
सो अब जाना कि उड़ान से पहले दिशाबोध जरुरी था
ओ हँसे!
दिशाबोध ही जरुरी था।