ओ हव्वा / दामिनी
बिस्तर का ठंडापन
क्या इतना खतरनाक होता है,
कि अच्छे-भले सांस लेते,
धड़कते जिस्म को मुर्दा कर दे?
क्यों काफी नहीं होती
अपने लिए अपने ही जिस्म की हरारत
कि उसूल और मर्यादाएं तक
इस ठंडेपन से पिघलकर
बहने लगते हैं,
कुछ पलों को सैलाब
क्यों भारी पड़ने लगता है
चट्टानी इच्छाशक्ति तक पर?
जिस्म की ‘निचली’ बहती सफेदी
क्यों जिस्म के ऊपर उगे चेहरे पर
मल जाती है कालिख?
ओ हव्वा! सुनो!
तुमने तो खा लिया था बोधिफल
और मिटा ली थी अपनी
जिज्ञासाओं की अकुलाहट भरी भूख
पर क्या कुछ अधूरा था उस संतुष्टि में
जो तुमने छोड़ दिया बाकी
अपनी पीढ़ियों के जिस्म में
प्यासा, सुलगता, मृगतृष्णा से भरा
फिर भी तटस्थ लगता
रेतीला तूफान!
तेरी उस संतुष्टि ने तय किया था सफर
जन्नत से जमीन तक के दरमियान
मेरे इन सवालों के जवाब के दरिया में
बह सकती है यह जमीन भी,
तब क्या तलाश पाएंगे मेरे पांव
कहीं और, कोई और मुकाम?