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औकात / सूर्यदेव सिबोरत
Kavita Kosh से
राई जैसी
तेरी एक मीठी बात पर
मैं
उम्मीदों का पर्वत
खड़ा करता रहा ।
एक फ्लैश जैसी
तेरी एक मुस्कान की
एक अदा पर
मैंने जीवन के
न जाने कितने बरस
लुटा दिये ।
यह जाने बग़ैर
कि बात तेरी
खो गई हवा में
बहुत पहले
एक गर्जन बनकर ।
मुस्कान
छुप गई जाकर
घने-काले
बादलों के बीच ।
और … और
बादल-बिजली बनकर दोनों
गिर पड़ी
मेरे दो टके के
अंगूठा छाप
अस्तित्व पर ।