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औघड़-मठ में कुबेर / अमरेन्द्र

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पर्वत रोया, गंगा रोई, जंगल रोया, और
सर को पटक-पटक के रोया घन भी ऊपर-ऊपर
बहती थीं चट्टानें ऐसी; मृत्यु लुढ़कती भू पर
महाकाल के खुले हुए मुँह में सब ही थे कौर ।

लाशों का साम्राज्य बिछा है नीचे-ऊपर, जल में
मंदिर की दीवारें ऐसी, ज्यों, गरीब का घर हो
स्वर्गारोहण के पथ पर ज्यों, फैला नरक-विवर हो
देवलोक का भाग्य सो गया नभ के उथल-पुथल में।

पर्वत का सौदागर इसमें बच निकला है फिर से
नदियों के चुप-मौन महाजन, जंगल के व्यापारी
वैतरणी के बीच डूबने की किसकी है बारी
काँप उठे गिरि-वन-बादल ही, जाने कहाँ किधर से ।

औघड़ शिव के मठ में जब तक है कुबेर का डेरा
शनि का चलता और रहेगा इसी तरह से फेरा ।