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औजार / अनिता भारती
Kavita Kosh से
तुम पहले प्रलोभन देते हो
फिर डांट-डपट
और फिर अंत में
मार-पीट करते हुए
हमारा मजाक उड़ाते हो
आमूल बदलाव के लिए
औजार के रूप में
क्या ये तीनों चीजें
एक साथ संभव है?
तुम्हारे संताप से संतप्त
सदियों से जकड़े समाज
उसके मासूम निरीह भोले
जल-जंगल-जमीन
यहाँ तक कि खुली बयार को भी
तुमने चुनौती दे ड़ाली
उसको भी तुमने नहीं बख्शा
कहते हो हमसे -
सुनो बिरसा मुँडा
तुम्हारी ये बंजर उजड़ी जमीन
क्या देती है तुम्हें?
तुम इसे हमें क्यों नही दे देते?
हमें महारत हासिल है
बंजर को गुलजार बनाने की
हम इस पर
तमाम तरह के रत्न उगाएँगे
कल-कारखानों की फसल
लहलहाएँगे
ये जमीन अब
दाल-भात-साग उगा-उगाकर
थक चुकी है
थक ही नही बौरा चुकी है
तुम जितना इसे देते हो
उससे कहीं ज्यादा हम इसे
देना चाहते है