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औरतें-1 / संध्या नवोदिता
Kavita Kosh से
कहाँ हैं औरतें ?
ज़िन्दगी को रेशा-रेशा उधेड़ती
वक़्त की चमकीली सलाइयों में
अपने ख़्वाबों के फंदे डालती
घायल उँगलियों को तेज़ी से चला रही हैं औरतें
एक रात में समूचा युग पार करतीं
हाँफती हैं वे
लाल तारे से लेती हैं थोड़ी-सी ऊर्जा
फिर एक युग की यात्रा के लिए
तैयार हो रही हैं औरतें
अपने दुखों की मोटी नक़ाब को
तीख़ी निगाहों से भेदती
वे हैं कुलाँचे मारने की फिराक में
ओह, सूर्य किरनों को पकड़ रही हैं औरतें