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औरत और अदालत / अमरेन्द्र

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बात नहीं रूपा-रूबी की नारी का मसला है
सिंह सामने हो, तो निश्चय रूप विरूप बनेगा
कस्तूरी से आग उठेगी, उससे धुंआ उठेगा
सोचो, आखिर उग्र हुई-सी ऐसी क्यों अबला है !

बच्ची, बाल किशोरी, बहुएं, नारी नहीं सुरक्षित
कहीं फँसे हैं सीधे सांसद, सीधे कहीं विधायक
लगे हुए हैं उन्हें बचाने, मंत्राी (विघ्न विनायक)
न्यायालय क्या न्याय करेगा यह भी बहुत अनिश्चित ।

देहरी और अदालत, कारा में आँसू औरत के
बूटों से पोछे जाते हैं, झूठ नहीं यह सच है
एक प्रश्न पर शासन में ही इतना क्यों कचकच है
ऐसे क्यांे बाजार लगे हैं नारी की इज्जत के ।

सिसकी में सहमी-सी काया भय से काँप रही ।
उगी डाल पर कोंपल को है आँधी चाँप रही ।