औरत का जिस्म / पाब्लो नेरूदा / उज्ज्वल भट्टाचार्य
औरत का जिस्म, गोरा उभार, गोरी जाँघें,
एक धरती-सी दिखती हो तुम, पस्त पड़ी हुई ।
मेरा खुरदरा किसान का जिस्म जोतता है तुम्हें
और गहराई से फूट पड़ती है नई नस्ल ।
अकेला था एक सुरँग-सा. कतराते थे परिन्दे मुझसे,
हमले के अन्दाज़ में ढक लेती थी काली रात ।
बचने की ख़ातिर बनाया हथियार तुम्हें,
धनुष में तीर, गुलेल में ढेले की मानिन्द ।
पर आई बदले की घड़ी, और हो गया प्यार मुझे ।
एक जिस्म नर्म खाल, घनी काई और गाढ़े दूध का ।
ओ शराब की प्यालियों-सा सीना ! ओ खोई हुई आँखें !
गुलाब-सा जघन ! उदास और धीमी तुम्हारी आवाज़ !
मेरी औरत का जिस्म, तुम्हारी इनायत में रहना है कायम ।
मेरी प्यास, मेरी बेपनाह तमन्ना, मेरी बदलती राहें !
नदी की धार जहाँ बहती रहती है आदिम प्यास
और फिर पस्ती का आलम, और दर्द बेहिसाब ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य