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औरत की आंच / आत्मा रंजन

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भुलेखे में हैं पुरुष
नंगे जिस्मों में कहीं ढूँढ़ रहे जो
औरत की आंच
भुलेखे में वे भी
बरबाद कर रहे जो इसे
ठंडे मौसम में सड़कों पर
भेजकर उसे फटेहाल
जबकि भव्य भवनों
आलीशान कॉलोनियों तक में
पसरी हुई है चारों तरफ
इंसान को निचोड़ती-गलाती ठंड

आपने छूकर देखा है कभी
शाम को उतार कर अलगनी पर रखी
उसकी शॉल को
दुनिया का एक श्रेष्ठ और कोमल कवच
होने का गौरव लिए
सहेजे रहती है जो औरत की आंच
छूकर देखा है कभी
उसके पर्स में रखा शीशा, रूमाल या बिंदिया
संजोए हुए हैं जो उसके पोरों की नाज़ुक छुअन
छूकर देखा है
सड़क के किनारे लेटाए
उसके बच्चे के गाल को
पसीना पोंछती बार-बार पुचकारती
खुलकर सौंपती है जिसे
होंठों का स्पर्श

आंच का व्यापार भी है
हर तरफ़ ज़ोरों पर
सतरंगे तिलिस्मी प्रकाश की चकाचौंध में
उधर टीवी पर भी रचा जा रहा
आंच का प्रपंच

ज़रूरी है आग
और उससे भी ज़रूरी है आंच
नासमझ हैं
समझ नहीं रहे वे
आग और आंच का फर्क
आग और आंच का उपयोग
पूजने से जड़ हो जाएगी
कैद होने पर तोड़ देगी दम
मनोरंजन मात्र नहीं हो सकती
आग या आंच
खतरनाक है उनकी नासमझी

राखी बंधवाते महसूस कर सकते हो
इस आंच को
वही आंच जिसे महसूस कर रहा
ठंडे पानी से नहाता वह फूल
जिसे सींच रही एक बच्ची
हाथ-बुने स्वेटर के
रेशे-रेशे में विन्यस्त है
तमाम बुरे दिनों
और ठंडे मौसमों के खिलाफ
गुनगुने स्पर्श से संजोई आंच
औरत की आंच
पत्थर, मिट्टी, सीमेंट को सेंकती है
बनाती है उन्हें एक घर
उसकी आंच से प्रेरित होकर ही
चल रहा है यह अनात्म संसार

एक अंडा है यह पृथ्वी
मां मुर्गी की तरह से रही जिसे
औरत की आंच
एक बर्फ का गोला है जमा हुआ
जिसकी जड़ता और कठोरता को
निरंतर पिघला रही वह
जीवित और जीवनदायी
जल में बदलती हुई।