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औरत की प्रतीक्षा में चाँद / अनुज लुगुन

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उस रात आसमान को एकटक ताकते हुए
वह ज़मीन पर अपने बच्चों और पति के साथ लेटी हुई थी
उसने देखा आसमान
स्थिर, शान्त और सूनेपन से भरा था
तब वह कुछ सोचकर
अपनी चूडिय़ाँ, बालियाँ, बिन्दी और थोड़ा-सा काजल
उसके बदन पर टाँक आई
और आसमान
पहले से ज़्यादा सुन्दर हो गया,

रात के आधे पहर जंगल के बीच
जब सब कुछ पसर गया था
छोटी-छोटी पहाडिय़ों की तलहटी में बसे
इस गाँव से होकर गुज़रती हवाओं को
वह अपने बच्चों और पति के लिए तलाश रही थी
उसी समय चाँद उसके पास चुपके से आया
और बोला --
सुनो ! हज़ार साल से ज़्यादा हो गए
एक ही तरह से उठते-बैठते, चलते,
खाते-पीते और बतियाते हुए
तुम्हारा हुनर मुझे नए तरीके से
सुन्दर और जीवन्त करेगा
तुम मुझे तराश दो,
वह औरत अपने बच्चों और पति की ओर देख कर बोली --
मैं कुछ देर पहले ही पति के साथ
खेत में काम कर लौटी हूँ और
अभी-अभी अपने बच्चों और पति को सुलाई हूँ
सब सो रहे हैं अब मुझे घर की पहरेदारी करनी है
इसलिए जब मैं खाली हो जाऊँगी
तब तुम्हारा काम कर दूँगी
अभी तुम जाओ
और चाँद चला गया उस औरत की प्रतीक्षा में,

चाँद आज भी उस औरत की प्रतीक्षा में है ।
रचनाकाल : 21-22 मार्च 2013