औरत की हँसी / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
वह औरत हँस रही थी
और मैं हैरान थी
क्योंकि पहली बार देखा था
किसी औरत का उस तरह खुलकर हँसना
जैसे हँसती हैं कलियाँ, चिड़िया और तितलियाँ
उसकी खुली हुई हँसी में शामिल थे
उसके इर्द-गिर्द के पेड़-पौधे, कुत्ता और गिलहरियाँ
साथ में एक बूढ़ी औरत,छोटे बच्चे और कुछ मर्द भी
शायद उस औरत को पता नहीं था
औरत के हँसने का मतलब
जो उसे जहन्नुम का रास्ता दिखाता है
उसने सुनी नहीं होगी
पांचाली की अनोखी कहानी
जिसकी उन्मुक्त हँसी
कठघरे में होती है खड़ी बार-बार
आज भी महाभारत रचने के जुर्म में
उसे यह भी मालूम नहीं रहा होगा
कि शहरों में जिन मर्दों को स्त्रियों की हँसी में
सतरंगे फूल खिलते नज़र आते हैं
उनके घर की औरतों की फूलों वाली कोख
रहती है सदा बाँझ
क्योंकि डर सताता है बार-बार
फूल छिटक कर जा न पाएं लक्ष्मण-रेखा के पार
मैंने सुन रखा था
दो तरह की औरतों को
खुलकर हँसने की औकात है
पर वह एलीट कत्तई न थी
उसके दाँतों की रजत-पंक्ति
उसके श्यामल-से मुख पर जगमगा रही थी
उसका हुलिया यही बता रहा था
वह किसी कबीले की नारी थी
जहाँ पहुँच नहीं पाई थी
कई दावों-प्रतिदावों के बावजूद
तथाकथित विकास की कोई प्रचार-गाड़ी
और इसलिए शहरी हवा,खाद-पानी
मेरे मस्तिष्क के कैमरे में
क़ैद हो गई है उस औरत की हँसी
कभी-कभी तन्हाई में छुपकर
मैं भी कर लेती हूँ खुलकर हँसने की कोशिश
और मेरी हँसी
बातें कर हवा से मीठी-मीठी
बन जाती है कबीलाई
आदिम प्रकृति की क़रीबी
महुआ-सी महकी-बहकी
चतुर्दिक फैली-पसरी
ढोल-नगाड़ों की गूँज पर
झुंड में इठलाती, नाचती-गाती
फिर थक कर है सो जाती
ऐसी सुकून भरी नींद
जो नहीं मिली थी कभी!