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औरत खुलती है / सुधांशु उपाध्याय

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हल्की बारिश
एक-एक कर पत्ती धुलती है
धीरे-धीरे जैसे
कोई औरत खुलती है!

फूल बह गए
नदी रुकी है
टहनी तट की
और झुकी है
पानी को सहलाता पानी
कितना दर्द छिपाता पानी
टप-टप गिरती हुई रोशनी
पोर-पोर में घुलती है!

परछाईं-सी
काँप रही है
ठहर गई-सी
भाप रही है
होठों पर सिसकारी बैठी
अनजाने बादल की आदत
कितनी मिलती-जुलती है!

थके हुए छींटें
पानी के
सबब बने
नादानी के
नोक-नोक पर पानी ठहरा
भीतर पत्ता हुआ हरा
बहुत देर तक गीली टहनी
रहती हिलती-डुलती है।