भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरत हूँ, ताकतवर भी,कमजोर भी / तारा सिंह
Kavita Kosh से
- औरत हूँ, ताकतवर भी, कमजोर भी
- कभी मैं स्वयं कुरबान हो जाती हूँ
- कभी मेरी कुरबानी जबरन ली जाती है
- मेरी कुरबानी सदा नदारद ही जाती है
- कुरबानी मेरी फितरत जो है
- निस्वार्थ कुरबानी मेरी ताकत है
- और यही मेरी कमजोरी भी है
- बेटे के लिए दूध में मिसरी और
- बेटी के हाथों पर रोटी-
- नमक धरनेवाली मैं ही हूँ
- सास बनकर बहू को खड़ी-खोटी
- सुनानेवाली भी मैं ही हूँ
- और बहू बनकर सास को जहर
- देनेवाली औरत भी मैं ही हूँ
- यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी
- मेरा अपना आपा कुछ नहीं है
- समाज, संस्कार और संस्कृति
- यही मेरा वजूद है
- मेरी पैदाइश ही अशुभ और बोझ है
- मेरी आँखों से आँसू की जगह खून टपकता है
- तब भी मैं उफ तक नहीं करती हूँ
- यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी
- पसीमा की तरह मेरी आँखों से
- अविरल आँसू झरते रहते हैं
- फिर भी कोयल की तरह मेरी
- जुबान मीठी है और मधुर भी
- अखंड पवित्रता पर दाग न लगे
- स्वयं अपनी हाथों अपनी चिता
- सजानेवाली पद्मिनी भी मैं ही हूँ
- यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी
- मेरी अपनी कोई पहचान नहीं
- मेरे शरीर के हजार टुकड़े हैं
- किन-किन को गिनाऊँ, बस
- यूँ समझ लो कि इस दुनिया को
- रचनेवाली देवी मैं ही हूँ
- और मिटानेवाली भी मैं ही हूँ
- यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी